Babli Bouncer Review | नहीं चला मधुर भंडाकर का सिनेमाई मैजिक, दर्शकों का दिल जीतने से फिर चूक गई तमन्ना

मुंबईः तमन्ना भाटिया का हिंदी सिनेमा से रिश्ता कोई 17 साल पुराना है। तब उनके नाम की अंग्रेजी में वर्तनी में दो एन और दो ए के साथ एक एच हुआ करता था या नहीं, ये तो याद नहीं लेकिन उनका चेहरा लोगों को तब भी चांद सा रोशन जरूर लगा था। बीते 17 साल में तमन्ना ने दक्षिण भारतीय सिनेमा का लंबा आसमान नापा है। उनकी उड़ानों के चर्चे दूर दूर तक रहे और उनकी तमन्ना यही रही कि वह किसी तरह फिर से हिंदी सिनेमा में अपनी एक ऐसी जगह बना सकें जिस पर जमाना नाज करे ना करे, कम से कम उन्हें खुद तो नाज जरूर हो।

हिंदी पट्टी के दर्शकों ने उन्हें पिछली बार ठीक ठाक रोल में ‘बाहुबली 2’ में देखा था। बीच में इक्का दुक्का फिल्में उनकी और हिंदी क्षेत्रों तक पहुंची लेकिन सिनेमाघरों तक तमन्ना की तमन्ना पूरी होने में अभी समय लग रहा है। उनकी नई फिल्म ‘बबली बाउंसर’ डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई है। तमन्ना की एक और फिल्म ‘प्लान ए प्लान बी’ नेटफ्लिक्स पर रिलीज होने की कतार में है। एक और फिल्म ‘बोले चूड़ियां’ की भी खूब चर्चा रही है।

सिनेमा बदल रहा है। किसी भी भाषा के सिनेमा से जरा सा भी ताल्लुक रखने वाले से बात कीजिए, उसका यही कहना होगा। वजह? दर्शकों की रुचियां और उनके सामने मौजूद मनोरंजन के विकल्प जो बदल गए हैं। बदलते समय में भी जो निर्देशक खुद को नहीं बदलने की कोशिश कर रहे हैं, वे बड़े परदे से निकलकर ओटीटी पर सिमट रहे हैं। मधुर भंडारकर ने जो बरसों पहले बना दिया, उसे अब दूसरे अपना रहे हैं और मधुर हैं कि खुद अपने ही सिनेमा से लगातार पीछे जा रहे हैं। मधुर की हिट फिल्मों का डीएनए एक जैसा है। उनकी कहानियों की नायिका किसी ऐसे पेशे से आती हैं जो आम दुनिया की निगाहों में अक्सर नहीं होता। उस पेशे की पेचीदगी की अंतर्धारा को मधुर की इन फिल्मों ने आस्तीन सा उलटकर रख दिया। कड़वा सच हमेशा आकर्षक होता है। और, इसी कड़वे सच को दिखाकर मधुर भंडारकर ने अपनी एक अलग स्थिति हिंदी सिनेमा में बनाई। लेकिन, ‘बबली बाउंसर’ में ये करने से वह फिर चूके हैं।

फिल्म ‘बबली बाउंसर’ दिल्ली के पास स्थित बाउंसर विलेज के नाम से मशहूर फतेहपुर असोला की कहानी है। इस गांव के हर घर में कोई न कोई बाउंसर है और दिल्ली एनसीआर में जहां भी जरूरत होती है, यहीं के बाउंसर जाते हैं। मधुर को मोहम्मद शकील ने आइडिया दिया, ‘क्या हो अगर इस गांव की एक लड़की एक दिन बाउंसर बनने का मन बना ले।’ विचार कमाल का है। लेकिन, ‘बबली बाउंसर’ में ये विचार इसकी नायिका के मन में उगाने का जो कारक तलाशा गया, वह इसकी कहानी को ही कमजोर कर देता है। बबली बिंदास है। बेधड़क है। वह बोलती भी खूब है। लेकिन, कहानी की नायिका अपना उद्देश्य हासिल करने के लिए जैसे ही झूठ, फरेब का सहारा लेती है, अपना किरदार कमजोर कर बैठती है। बबली को बाउंसर इसलिए नहीं बनना है कि वह इसमें अपना भविष्य देखती है। वह बाउंसर बनती है अपने स्कूल की मास्टरनी के उस बेटे से प्रेम की पींगे बढ़ाने का मौका पाने के लिए जिस पर गांव की शादी में वह पहली नजर में ही फिदा हो गई।

पांच लोगों ने मिलकर फिल्म ‘बबली बाउंसर’ कागज पर उतारी और इन पांचों लोगों के मन में एक बार भी ये ख्याल नहीं आया कि वे बबली के चरित्र का आधार खुद ही कमजोर कर दे रहे हैं। कभी मधुर भंडारकर हालात के हाथों मजबूर महिला चरित्रों को अपनी कहानियों की दमदार नायिकाएं बनाने के लिए जाने जाते थे। यहां एक नायिका गढ़ने के लिए जो हालात पहली गलती के बाद बनाए जाते हैं, वे ठीक तो हैं पर जाने पहचाने लगते हैं। दसवीं पास करने की कोशिश करना, अंग्रेजी में बातें करके माता पिता को प्रभावित करना, ये सब दर्शकों को अब चौंकाता नहीं है। तमन्ना को लगा होगा कि मधुर भंडारकर की फिल्म करने को मिल रही है या कहें कि किसी भी हिंदी फिल्म में लीड किरदार करने का मौका मिल रहा है, बस उन्होंने फिल्म लपक ली।

तमन्ना की शोहरत दक्षिण भारतीय सिनेमा में ‘मिल्क ब्यूटी’ के नाम से है। यहां, फिल्म ‘बबली बाउंसर’ में शादी की बात चलने पर बबली का पिता कहता भी है कि देखो हमारी बेटी का रंग कितना सुथरा है। दुनिया सांवली सूरतों पर फिदा है और ये पिता अब भी अपनी बेटी का सबसे बड़ा गुण उसका रंग रूप ही मान रहा है। यही वह पिता है जिसने अपनी बेटी को दसवीं पास कराने की उन पांच साल में एक भी मदद नहीं की जिनमें बबली लगातार फेल होती रही। वह सिर्फ बेटी की सफलता से खुश होता पिता है। बेटी को उसके मन की तो करने देता है। लेकिन बेटी के मन का होना देने के साधन जुटाता वह नहीं दिखता। बाप-बेटी के रिश्ते की ये कमजोरी भी ‘बबली बाउंसर’ को कमजोर करती है।

‘बबली बाउंसर’ जैसी फिल्में ओटीटी के लिए बेहतरीन फिल्में हो सकती हैं। सास बहू के धारावाहिक पीछे छूट चुके हैं। महिलाएं भी घर के बड़े टेलीविजन पर इंटरनेट के सहारे प्रेरक कहानियां तलाश रही हैं या फिर तलाश रही हैं ऐसी भावनाएं जिनमें उनके अपने एहसासों को खाद पानी मिले। इस लिहाज से फिल्म ‘बबली बाउंसर’ शुरू के आधे घंटे पकाने के बाद लाइन पर आ जाती है।

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