FILM REVIEW | इस ‘मजनू’ का मिशन रोमांच नहीं जगाता, रश्मिका के हिस्से दमदार रोल नहीं, सिद्धार्थ की मासूम अदाकारी दिल जीत लेगी

मुंबई: 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में भारत ने पहला सफल परमाणु परीक्षण किया था। इस ऑपरेशन का कोड नेम स्माइलिंग बुद्धा रखा गया था। ऐसे में भारत से तीन जंग हारने के बावजूद पाकिस्‍तान ने गुपचुप तरीके से परमाणु बम बनाने का फैसला किया था।

हालांकि, उसके नापाक मंसूबों को देश के जांबाज जासूसों ने सफल नहीं होने दिया था। ऐसे ही बहादुर जासूस को समर्पित है फिल्‍म मिशन मजनू।

पिता की गद्दारी का बोझ उठाकर चलने वाला जासूस

कहानी का आरंभ वर्ष 1974 में रावलपिंडी में बसे तारिक उर्फ अमनदीप (सिद्धार्थ मल्‍होत्रा) के परिचय (बेहतरीन दर्जी) के साथ होता है, जो रॉ एजेंट है। उसके पिता ने गद्दारी के आरोप के चलते आत्‍महत्‍या कर ली थी। यह दर्द उसे सालता रहता है। उसे रॉ के चीफ आर एन काव (परमीत सेठी) का संरक्षण प्राप्‍त है।

बॉस शर्मा (जाकिर हुसैन) पिता की गद्दारी की वजह से उस पर यकीन नहीं रखता है। तारिक को नेत्रहीन नसरीन (रश्मिका मंदाना) से मोहब्‍बत हो जाती है। उधर, भारत में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में सफल परमाणु परीक्षण की खबर से पाकिस्‍तान बौखला जाता है।

पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री भुट्टो (रजत कपूर) गुपचुप और गैरकानूनी तरीके से परमाणु बम बनाने का निर्णय लेते हैं। लीबिया का तानाशाह गद्दाफी इसमें पाकिस्‍तान का साथ देता है। पाकिस्‍तान अपनी मंजिल के करीब था, उसी दौरान वहां पर तख्‍तापलट हो जाता है।

पाकिस्‍तान की कमान सेना प्रमुख जिया उल हक के हाथों में आ जाती है। काव को यूरोप से खबर मिलती है कि पाकिस्‍तान परमाणु बम बनाने की तैयारी में हैं। तारिक से सूचना जुटाने को कहा जाता है। इधर भारत में में इमरजेंसी लागू हो जाती है। सत्‍ता परिवर्तन् हो जाता है।

रॉ को मिशन बंद करने के लिए कहा जाता है। पाकिस्‍तान में परमाणु बम बनाने की खबर को पुख्‍ता करने में तारिक को रॉ के दो अन्‍य सहयोगी मौलवी साहब (कुमुद मिश्रा) और असलम उस्‍मानिया (शारिब हाशमी) का साथ मिलता है।

नया नहीं मिशन मजनू का विषय

हिंदी सिनेमा में देश के गुमनाम हीरो पर इससे पहले आलिया भट्ट अभिनीत राजी, जॉन अब्राहम अभिनीत रोमियो अकबर वाल्‍टर, अक्षय कुमार अभिनीत बेलबाटम जैसी फिल्‍में रिलीज हुई हैं। इस कड़ी में पाकिस्‍तान में परमाणु बम बनाने के मंसूबों को नाकाम करने की कहानी देशवासियों को गौरवान्वित करने वाली है।

यह वो दौर था, जब तकनीक नहीं थी, दोनों देशों के बीच संवाद का जरिया टेलीफोन था। सीमित संसाधनों के बावजूद देश के जांबाज जासूसों ने पड़ोसी देश के दोहरे चरित्र को उजागर किया।

बहरहाल, जासूसी थ्रिलर फिल्‍मों में कहानी में रोमांच बनाए रखने के लिए सांसें थामने वाले प्रसंग बेहद आवश्‍यक होते हैं। परवेज शेख, असीम अरोड़ा, सुमित भटेजा द्वारा लिखित पटकथा में थ्रिल की कमी साफ झलकती है। शुरुआत में तारिक और नसरीन की मुलाकात भी बे‍हद फिल्‍मी लगती है।

तारिक के पिता को गद्दार बताया गया है, लेकिन तारिक उन्‍हें बेगुनाह साबित करने के बारे में नहीं सोचता। यह थोड़ा अखरता है। तारिक के लिए सब कुछ बेहद आसान दिखाया गया है। खास तौर पर जब परमाणु संयंत्र के पास तारिक और असलम पकड़े जाते हैं तो आपकी सांसे नहीं थमतीं। क्‍लाइमेक्‍स में जरूर थ्रिल आता है।

यह फिल्‍म देखते हुए देशप्रेम की भावना में उबाल नहीं आता है। फिल्‍म के संवाद भी दमदार नहीं बन पाए हैं। उस कालखंड को बताने के के लिए धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और शोले के संवादों का प्रयोग किया गया है। वो बहुत रोचक नहीं बन पाया है। हालांकि, कहानी की विश्वसनीयता के लिए शुरुआत में इंदिरा गांधी और जिया उल हक की असल क्‍लिपिंग जोड़ी गई हैं।

सिद्धार्थ मासूम, रश्मिका सुंदर 

कारगिल युद्ध के नायक विक्रम बत्रा की भूमिका को अभिनेता सिद्धार्थ मल्‍होत्रा ने साल 2020 में रिलीज फिल्‍म शेरशाह में निभाया था। इस बार पाकिस्‍तान में गैरकाननूी तरीके से बने परमाणु संयंत्र को नाकाम करने के मिशन पर अंडरकवर तारिक के किरदार में वह जंचते हैं।

उनके चेहरे पर मासूमियत झलकती है। आखिर में एयरपोर्ट में उनका घबराता हाथ रोंगटे खड़े करता है। रश्मिका मंदाना सुंदर लगी हैं, लेकिन उनके हिस्‍से में कोई दमदार सीन नहीं आया है। शारिब हाशमी, जाकिर हुसैन का काम उल्‍लेखनीय है। जिया उल हम की भूमिका में अश्‍वत भट्ट प्रभावित करते हैं। रॉ की भूमिका में परमीत सेठी में ठहराव नजर आता है। फिल्‍म का गाना रब्‍बा जानंदा कर्णप्रिय है। यह कहानी को आगे बढाता है।

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