लाशों के बीच काम करने वालों कर्मवीरों की कहानी आपको हिला देगी, वे कहते हैं- डर तो जिंदा लोगों से लगना चाहिए

मुंबई: मैं वहां से लौटकर घर जाता और पत्नी या मां को बताता कि मैं कहां गया था, तो वे मुझसे सबसे पहले नहाने को कहतीं। मुझे छूने से बचतीं और कुछ भी न छूने की हिदायत देतीं। उन्हें नहीं पता होता कि जहां से लौटा हूं, वह किसी का दफ्तर है। वैसा ही, जैसा आम नौकरीपेशा लोगों का होता है। दुनिया जिसे मॉर्चुरी या पोस्टमॉर्टम रूम कहती, वह उसे अपना दफ्तर कहते। मुंबई के सायन अस्पताल का मॉर्चुरी वॉर्ड एक बहु मंजिला इमारत में है। वहां मौजूद इक्का-दुक्का लोगों से पूछते हुए मैं पोस्टमॉर्टम वर्कर रूम के बाहर पहुंचता हूं। वह करीब 8 बाई 10 का एक कमरा था। उसी में एक छोटी सी बाथरूम भी थी। जब मैं उस कमरे में मौजूद वर्कर्स को अपना परिचय देता हूं और आने का उद्देश्य बताता हूं, तो वे असहज हो जाते हैं और अपने सीनियर, जिन्हें वे मामा कहकर बुलाते हैं, से बात करने को कहते हैं। फिर बातचीत शुरू होती है।

पिछले 40 साल से पोस्टमॉर्टम अटेंडेंट के तौर पर काम कर रहे विलास कवाडे उर्फ मामा बताते हैं कि पहले-पहले जब मैं इस काम में आया, तो लोगों ने खूब रोका-टोका। मैं मुर्दों को देखकर घबरा जाता था। लेकिन, अब इसी जगह पर जब वक्त मिलता है, तो सो भी जाता हूं। घर या किसी और जगह से ज्यादा सुकून मुझे यहां मिलता है। हमारे लिए जिंदा और मुर्दा में बस यही फर्क है कि जिंदा की सांसें चल रही हैं और मुर्दा की नहीं चल रहीं। लोग बेवजह मुर्दों से डरते हैं। भला वे किसी को क्या नुकसान पहुंचाएंगे, डर तो जिंदा लोगों से लगना चाहिए।

…तो कोई शादी नहीं करता
यहीं मिले 35-36 साल के राजेश यादव, जो दिखने में हट्टे-कट्टे, गोरे-चिट्टे हैं। वह किसी से कह दें कि मैं मॉडल हूं, तो कोई भी आसानी से मान ले। वे पिछले 7 साल से पोस्टमॉर्टम अटेंडेंट हैं। वे मुस्कुराते हुए कहते हैं कि अच्छा रहा मेरी शादी इस जॉब में आने से पहले हो गई, वरना इस काम के बारे में बताता, तो कोई शादी नहीं करता। दोस्त-यार मुझसे मेरे काम के अनुभव पूछते हैं, लेकिन अब यह सब मेरे लिए सामान्य है। भले लोग हिकारत की नजर से देखें, लेकिन मुझे मेरे काम से शिकायत नहीं है। शुरू में मुझे पोस्टमॉर्टम के सपने आते थे। कई बार ऐसे सपने आए कि मैं अपने घर में ही पोस्टमॉर्टम कर रहा हूं। कोई मेरी शिकायत कर देगा। कई बार खाना नहीं निगला जाता था। लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक होता गया।

अपना नाम न बताने की शर्त पर एक पोस्टमॉर्टम अटेंडेंट कहते हैं कि मैं सिर्फ अपने बॉस से डरता हूं, बाकी किसी से नहीं। मुर्दों के साथ रहते-रहते एक लंबा अरसा हो गया है। अब बस यह बॉडी हैं, इनके नंबर हैं। यही इनकी पहचान है। हम अपने काम के बारे में अपने परिवार से कोई बात शेयर नहीं करते। जब हम अपनी फैमिली के साथ होते हैं, तो अलग ही शख्स बन जाते हैं। किसी को जब पता चलता है, तो उसका रवैया हमारे प्रति बदल जाता है, कई बार बुरा लगता है, लेकिन फिर अपनी दुनिया में आकर सब सामान्य हो जाता है। हम यहां सब लोग छोटी-मोटी पार्टियां करते हैं। एक-दूसरे के दु:ख-दर्द के साथी बने रहते हैं।

विलास बताते हैं कि रोज औसतन 10 पोस्टमॉर्टम होते हैं। एक व्यक्ति एक दिन में 3-4 पीएम करता है। ड्यूटी दिन-रात में बंधी होती है। अगर कोई हाई-प्रोफाइल केस होता है, तो पहले बता दिया जाता है। नए लोग इस पेशे में जब आते हैं, तो उन्हें साफ-सफाई का काम देते हैं। उनके लिए अडजस्ट करना मुश्किल होता है, फिर वे धीरे-धीरे ढल जाते हैं।

‘यह गलत धारणा कि हम शराब पीकर काम करते हैं’
एक पोस्टमॉर्टम सहायक कहते हैं, ‘आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि हम पीएम के दौरान शराब पीते हैं। इसके बिना यह काम नहीं हो सकता, लेकिन ऐसा नहीं है। हम ज्यादातर मौकों पर बिना शराब पिए काम करते हैं। जब कोई डेड बॉडी ज्यादा ही बिगड़ी हालत में होती है, तब हमें जरूर शराब लेनी होती है, ताकि थोड़ी हिम्मत आए और हम उस सबको बाद में भुला सकें। हम ऐसे लोगों को भी जानते हैं, जिन्होंने हमेशा इस काम को बिना शराब के किया।’

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